Jain style.
From the sixth century, Jain art begins with five Jain idols inscribed in the caves of Sitamwashan. The story and the picture of the Mahamas are ancient examples of jain style, based on the Kalsutra and Kalakacharya Katha inscribed on the palm paper. The skills and uniqueness of Jain painters are found in the paintings of the philosophy of the Tadpatri pothi. The painters have shown important and viraat expressions through very subtle lines. Just writing and drawings on you or clothes is safe in Jain texts.
Writing and illustration on clothes is safe in the bibliographers the Spring Vilas World famous unique masterpiece on textiles is safe in the Gallery of Washington. The Collection of Muni Kranti Sagar is a safe Jain textile picture in the collection Aryas of Lucknow Allahabad and Kolkata etc. A valuable copy of Kalsutra is safe in Ahmedabad.The Jain-style artists are also producing pictures of the Ratisya and Kama Sutra besides producing pictures of vaishnava sect texts like Markandey Purana and Durga Saptakti. There is a plethora of yellow in the picture of characterization of Jain artists. Somewhere the golden colour is also used in yellow and red colour of the background inscribed on the rhythm letters. The list lines of artists express huge expressions.The picture of Jain style is the story of the Tirthankaras described in the Kalsutra and Acharya Sutra, which expresses immediate folk culture and folk ideas. The important day of Jain style artists in the history of Indian painting is Jain style is a distinctive part of the dislocation style.
जैन शैली।
छठवीं शताब्दी से ही जैन कला का आरंभ सितमवाषण की गुफाओं में अंकित पांच जैन मूर्तियों से मिलता है।ताड़ पत्र पर अंकित कल्पसूत्र तथा कलाकाचार्य कथा के आधार पर निर्मित का पाश्र्वनाथ इत्यादि कथा तथा चित्र महात्माओं के चित्र जैन शैली की प्राचीन उदाहरण है। जैन चित्रकारों की कुशलता एवं उसकी विशिष्टता कर दर्शन ताडपत्री पोथी के चित्रों में मिलता है।चित्रकारों ने अति सूक्ष्म रेखाओं के माध्यम से महत्वपूर्ण एवं विराट भावों को दर्शाया है। बस तू या कपड़ों पर लेखन एवं चित्र जैन ग्रंथों में सुरक्षित है।
कपड़ों पर लेखन एवं चित्रण ग्रंथकारों में सुरक्षित है वस्त्र पर बसंत विलास जगत प्रसिद्ध अनुपम कृति वाशिंगटन की गैलरी में सुरक्षित है।मुनि क्रांति सागर के संग्रह लखनऊ इलाहाबाद व कोलकाता आदि के संग्रह आर्यों में जैन वस्त्र चित्र सुरक्षित है। कल्पसूत्र की एक मूल्यवान प्रति अहमदाबाद में सुरक्षित है।जैन शैली के कलाकारों ने मार्कंडेय पुराण एवं दुर्गासप्तशती जैसे वैष्णव संप्रदाय संबंधी ग्रंथों के चित्रों के निर्माण के अलावा रतिरहस्य एवं कामसूत्र की भी चित्रों का निर्माण है। जैन कलाकारों का चरित्र चित्रण के चित्र में पीले रंग की अधिकता है।कहीं-कहीं पर स्वर्ण रंग का भी प्रयोग है ताल पत्रों पर अंकित पृष्ठभूमि के पीले एवं लाल रंग में दिखाया गया है। कलाकारों की सूची रेखाएं विशाल भावों को व्यक्त करती है।जैन शैली के चित्र कल्पसूत्र एवं आचार्य सूत्र में वर्णित तीर्थंकरों की जीवन वह कथा है जो तात्कालिक लोक संस्कृति एवं लोक विचारों की अभिव्यक्ति करती है।भारतीय चित्रकला के इतिहास में जैन शैली के कलाकारों की महत्वपूर्ण दिन है जैन शैली है अपभ्रंश शैली का विशिष्ट अंग है।
Dislocation style.
Dislocation style from 11 to 16th century, there are extensive paintings in the places of Gujarat in western India. This picture style is just a distortion of ancient style. The background climbs over the shapes and the pot has not been taken care of. The trees have been marked like bouquets. Animals and birds appear to be like paper toys or cloth dolls. In the same picture, many have a different vision inscribed that seem mismatched and inconsistent.
The dislocation-style paintings are found in the square places left in the middle of the Jain religious beads. Painters and clerical crying quickly produced the tadpatriable guests, which has led to the harshness and weak lines in the paintings. There are only one deception on the face whose nose is out of a sharp and long thin cheek, a little too small and a flat eye-sarcasm line has risen far. Somewhere the brothers have been mixed together, most of the hands are dead and the same fingers are fairy and waist thin.
Yellow and red colours have been used more in these paintings. More than myself, the pictures have produced more brightness. Pictorial Bal Gopal praise written on paper pictorial copies of Durga Saptakti and Geetgovind in Gujarat have been received from several places in Northern India which have been preserved in the Boston Museum.
अपभ्रंश शैली।
अपभ्रंश शैली 11 वी से 16वें शताब्दी तक पश्चिमी भारत के गुजरात के स्थानों में व्यापक चित्र मिले हैं यह चित्र शैली प्राचीन शैली की विकृति मात्र है। पृष्ठभूमि आकृतियों के ऊपर चढ़ जाती है और बर्तन का कोई ध्यान नहीं रखा गया है। पेड़ों का अंकन गुलदस्ते जैसा किया गया है। पशु-पक्षी कागज के खिलौने या कपड़े के गुड्डे जैसे प्रतीत होते हैं। एक ही चित्र में कई एक अलग अलग दृष्टि अंकित है जो बेमेल और असंगत लगते हैं।
अपभ्रंश शैली के चित्र जैन धर्म संबंधी मोतियों में बीच-बीच में छोड़े हुए चौकोर स्थानों में बने हुए मिलते हैं।चित्रकारों तथा लिपिका रोने शीघ्रता से ताडपत्री अतिथियों का निर्माण किया इसके कारण चित्रों में कठोरता तथा कमजोर रेखाओं का व्यवहार हुआ है। चेहरे पर आया एक ही धोखे हैं जिनकी नाक नुकीली और लंबे पतले गाल के बाहर निकली हुई है थोड़ी बहुत छोटी तथा चपटी आंखों की कटाक्ष रेखा दूर तक बढ़ी हुई है।कहीं-कहीं भाई एक साथ मिली हुई बनाई गई है अधिकतर हाथ मरे हुए तथा एक ही उंगलियां छातियों परी और कमर पतली है
इन चित्रों में पीले और लाल रंगों का प्रयोग अधिक हुआ है। स्वयं से अधिक प्रयोग से चित्रों में अधिक चमक उत्पन्न हुई है विवरण शैली के चित्र ताडपत्री पोथी वस्तुओं तथा कागज पर मिले हैं।कागज पर लिखी गई सचित्र बाल गोपाल स्तुति गुजरात में दुर्गा सप्तशती तथा गीतगोविंद की सचित्र प्रतियां उत्तरी भारत के अनेक स्थानों से प्राप्त हुई है जिसे बोस्टन संग्रहालय में सुरक्षित रखा गया है।
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